Saturday, April 25, 2015

बाबू अजायब सिंह के परिवार की शहादत-3
1857 से 76 साल पहले...

इतिहास वही नहीं है जो इतिहास की किताबों में दर्ज है। इतिहास वो भी है जो जनमानस की स्मृतियों में दर्ज है, भले ही उसे सरकारी इतिहास के पन्नों में जगह मिली हो या नहीं। सर्वमान्य तथ्य है कि मुल्क की आजादी की पहली जंग 1857 में हुई थी। लेकिन सच ये भी है कि इस जंग से 76 साल पहले बनारस की सड़को पर ऐसा भयानक युद्ध हुआ कि अंग्रेजों की रूह कांप गई।


आजादी का पहला बिगुल काशी में ही बजा थाउधर किले के अंदर घमासान मचा हुआ था इधर बाहर चारों तरफ फैले काशी के वीर रणबांकुरों तक खबर पहुंची कि किले में मार-काट मच गई है। फिर क्या था सभी बाज की तरह गोरी चमड़ी वालों पर टूट पड़े उस जंग में किसने किसको मारा ये तो आज तक पता नहीं चल सका, लेकिन शिवाला घाट पर बने किले के बाहर लगे शिलापट्ट पर अंग्रेजों ने ये जरूर अंकित करवा दिया कि इसी जगह पर तीन अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेंट स्टॉकर, लेफ्टिनेंट स्कॉट और लेफ्टिनेंट जार्ज सेम्लास समेत लगभग दो सौ सैनिक मारे गए थे।
इस घटना के तुरन्त बाद अजायब सिंह की बहन महारानी गुलाब कुंवर ने काशी नरेश को गवर्नर वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार करने की सलाह दी, लेकिन उनके दीवान बक्शी सदानंद ने उन्हें ऐसा कराने से मना कर दिया। उधर वारेन हेस्टिंग अपने पकडे़ जाने के डर से माधव दास बाग के मालिक पंडित बेनी राम से चुनार जाने के लिये सहायता मांगी। उसे पता चल गया कि काशी नरेश  की एक बड़ी फौज उसे गिरफ्तार करने के लिए किले से चल पड़ी है। कहते हैं कि अपनी गिरफ्तारी के डर से वारेन हेस्टिंग उसी माधव दास बाग के भीतर बने एक कुंए में कूद गया और जब रात हुई तो वो स्त्री का भेष धारण कर चुनार की ओर भाग निकला। और फिर चुनार से बड़ी फौज लेकर काशी पर हमला बोल दिया। इस हमले में बनारस की छोटी सेना अंग्रेजों की बड़ी फौज का सामना नहीं कर सकती थी। लिहाजा राजा चेतसिंह अपने खजाने और पूरे परिवार के साथ ग्वालियर की ओर कूच कर गए। जहां ग्वालियर के सिंधिया ने उन्हें शरण दी। लेकिन आजीवन फिर कभी राजा चेत सिंह काशी वापस न आ सके और ग्वालियर में ही उनका निधन हो गया।
लेकिन इतिहास गवाह है कि के दीवान बक्शी सदानंद क़ी ये सलाह कि वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार ना किया जाय, भारत के लिये दुर्भाग्यपूर्ण रहा। अगर उस दिन वारेन हेस्टिंग काशी नरेश क़ी सेना के हाथों गिरफ्तार कर लिया गया होता तो शायद अंग्रेजों के पांव भारत में ही जमने से पहले ही उखड़ जाते।
काशी नरेश चेत सिंह के बनारस छोड़ते ही महारानी गुलाब कुंवर भी अपने भाई अजायब सिंह के साथ ग्वालियर के लिए निकल पड़ीं। हेस्टिंग्ज को इस बात की सूचना मिली कि रामनगर के किले में राजपरिवार का कोई भी सदस्य मौजूद नहीं है। फौरन एक टुकड़ी रानी गुलाब कुंवर को रोकने के लिए दौड़ाई गई। क्योंकि अंग्रेजों को पता था कि अगर बनारस पर कंपनी से सीधे अधिकार कर लिया तो उनके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है। महोबा के पास अंग्रेज टुकड़ी ने रानी गुलाब कुंवर के पालकी को रोका। सुबह से शाम तक समझाने-बुझाने का क्रम चलता रहा और अंत में कुछ शर्तों पर रानी गुलाब कुंवर वापस बनारस आने को राजी हुईं।

चेत सिंह के बाद रानी गुलाब कुंवर के नाती महीपत नारायण सिंह को काशी नरेश बनाया गया जबकि बाबू अजायब सिंह उनके नायब और संरक्षक के पद पर आसीन हुए। उन्हें कानूनी रूप से महाराजा से भी ज्यादा अधिकार प्राप्त थे। लेकिन रानी गुलाब कुंवर के गुजरते ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने साजिश रचकर अजायबसिंह को काशी राजके नायब पद से हटा दिया। अब काशी की गद्दी पर महाराजा उदित नारायण सिंह बैठ चुके थे। वहीं अजायब सिंह की जगह पर नागपुर के एक मराठा शंकर पंडितको काशी का नायब और गाजीपुर जिले का आमिलबनाया। इसी शंकर पंडित के हाथों गाजीपुर में गड़हा, डेहमा, मोहम्मदाबाद और जहूराबाद जैसे परगनों का स्थायी बंदोबस्त हुआ। इस बंदोबस्त में जमकर मनमानी हुई। जहां जरूरी नहीं था वहां पैमाइश की गई और जहां जरूरी था वहां पैमाइश की अपील को खारिज किया गया। ये वो दौर था जब अजायब सिंह का देहांत हो चुका था और उनके तीन बेटे शिव प्रसन्न सिंह, शिव अंबर सिंह और शिव रतन सिंह बनारस (कोलअसला) और नारायणपुर (करइल) की जमीनदारी की देखभाल कर रहे थे। मोहम्दाबाद और गड़हा परगना में करइल इलाके में कई गांवों के जमीनदारी अधिकार छीन लिए गए। न जाने कितने गांवों को नीलाम किया गया। किसानों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। 

लखनऊ का नवाब वजीर अलीइन दिनों बेदखल होकर पेंशनयाफ्ता के रूप में बनारस के कबीरचौरा में रह रहा था। अंग्रेजों ने अब उसकी पेंशन भी कम कर दी। नवाब वजीर अली गुस्से में था उसने अजायब सिंह के परिवार से सलाह मशविरा किया। तय हुआ कि दोनों पक्ष एक बड़ी फौज तैयार करें और अंग्रेजों पर हमला हो।अजायब सिंह के परिवार ने चितबड़ागांव (बलिया) में फौज की भरती शुरू कर दी। इस फौज में भर्ती होने वाले नौजवानों को बांका नाम दिया गया। फौज को पिंडरा (कोलअसला) के किले मे लाया गया। लेकिन नवाब अपनी फौज इकट्ठा करने में नाकाम रहा। अजायब सिंह का परिवार नावाब की फौज का इंतजार करने लगा लेकिन नवाब वजीर अली एक दिन अचानक इस फौज को लेकर अंग्रेज रेजिडेंट से मिलने चल पड़ा और बिना किसी योजना के रेजिंडेट के मुख्यालय पर हमले का आदेश दिया। हमले में अंग्रेज अफसरों समेत बनारस की अंग्रेज फौज का सफाया हो गया। लेकिन बिना बड़ी तैयारी के ये हमला नवाब वजीर अली और अजायब सिंह के खानदान के लिए जानलेवा साबित हुआ। नवाब इस हमले के बाद जयपुर में शरण लेने के लिए राजपुताना की ओर निकल गया। अंग्रेजी फौज ने नवाब का पीछा किया और इधर रात के अंधेरे में कोलअसला के किले पर हमला कर दिया। 


अजाबसिंह के छोटे बेटे शिवरतन सिंह को सोते में सिपाहियों ने चिल्लाकर हमले की खबर दी। शिवरतन सिंह उन दिनों नंगी तलवार बिस्तर के नीचे रखकर सोते थे। शिवरतन सिंह ने तलवार उठाई और तलवार को म्यान में रखा समझकर उसे बाएं हाथ से पकड़कर बाहर खींचने की कोशिश की लेकिन नींद में वो ये न देख से कि तलवार नंगी है। झटके से उनके दूसरे हाथ की सभी उंगलिया कट गई फिर भी उन्होंने शहीद होने से पहले चार अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। हमले में उनके दोनों बड़े भाई भी शहीद हो गए लेकिन काशी राज दरबार से ये बात छुपाने के लिए उनकी लाशों को चुपचाप गंगा के हवाले कर अफवाह फैला दी गई कि दोनों बड़े भाई नेपाल फरार हो गए जो कभी नहीं लौटे। पिंडरा का किला तोपों से उड़ा दिया गया...अजायब सिह के परिवार की बनारस और गाजीपुर की संपत्ति और जमींदारी जब्त कर ली गई।

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