किनवार वंश पर
स्वामी सहजानंद सरस्वती का शोध
किनवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज काश्यप गोत्री, क्यूना के दीक्षित हैं। इसीलिए इनके विषय में किसी का मत हैं कि ये लोग काशी के पास विशेषकर गाजीपुर में क्यूना से आये, इसीलिए उसी डीह के नाम से क्यूनवार कहलाने लगे और वही शब्द बिगड़कर किनवार हो गया। गाजीपुर जिले में ही इन लोगों के निवास स्थान के पास ही कुण्डेसर ग्राम के पूर्व और वीरपुर, नारायणपुर से पश्चिम-उत्तर ओकिनी नाम की नदी बहती थी, जो अब मिट्टी से पट गयी हैं, केवल उसका थोड़ा सा चिह्न रह गया हैं और कुण्डेसर से नारायणपुर को जाने वाली पक्की सड़क के पश्चिम ही उसी ओकिनी के तट पर अब तक किनवार लोगों का पुराना डीह ऊँचा-सा पड़ा हैं। इसलिए उसी ओकिनी के डीह पर रहने से ये लोग ओकिनीवार कहलाते-कहलाते अब 'ओ' शब्द के काल पाकर छूट जाने से किनवार कहलाने लगे।
यद्यपि किनवार ब्राह्मणों की वंशावली में यह लिखा हुआ हैं कि ये लोग कर्नाटक-पदुमपुर से आये और उस पदुमपुर के विषय में बहुत लोगों ने अन्दाज से बहुत कुछ बक डाला हैं। फिर भी ठीक पता वे न लगा सके और यद्यपि वह पदुमपुर कर्नाटक देश और केरल देश की सरहद पर केरल देश का एक खण्ड हैं, इस बात को अभी प्रमाणित करेंगे, तथापि किनवार ब्राह्मण प्रथम के कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं, न कि केरल देशीय ब्राह्मण। यह बात इनकी प्राचीन वीरता और व्यवहार-आचारों से सिद्ध हैं। यद्यपि कर्नाटक-पदुमपुर से ये लोग आये, इस विषय में कुछ विशेष प्रमाण या कारण नहीं मिलता। क्योंकि दक्षिण में ऐसी भगेड़ न थी जैसी कन्नौज वगैरह देशों में थी। इसीलिए इन देशों में दक्षिण देश के ब्राह्मण प्राय: नहीं पाये जाते। तथापि यदि वहाँ से ही किनवार ब्राह्मणों का आना मान भी ले तो भी ये लोग वहाँ भी कान्यकुब्ज देश से ही गये थे और फिर किसी कारणवंश हटकर इसी देश में चले आये। कान्यकुब्ज देश से केरल देश या उसके पदुमपुर स्थान में ब्राह्मणों के जाने और वहाँ से आने की बात 'केरल उत्पत्ति' नामक ग्रन्थ में लिखी हुई हैं। यह ग्रन्थ मालाबारी भाषा में लिखा गया था और पीछे से उसका अनुवाद फारसी में हुआ था, जिसे मिस्टर जोनाथन डुनकन' (Jonathan Duncn) ने 1793 ई. में अंग्रेजी में अनुवादित किया। यह सब पूर्वोक्त बातें एशियाटिक रिसर्चेज (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखी गयी हैं, जो सन् 1801 ई. में छपी थी। उस ग्रन्थ के 56वें पृष्ठ में मालाबार देश के प्राचीन विवरण को लिखते हुए उसी सम्बन्ध में ये बातें लिखी गयी हैं। उस ग्रन्थ का कुछ अंश नीचे उध्दृत किया जाता हैं, जिससे पूर्वोक्त बातों का थोड़ा-सा पता लग जायेगा :
In the book called Kerul-oodputteeor the emerging of the country of Kerul (of which during my stay at Calicut in the year 1793, I made the best translation into English in my power, through the medium of a version first rendered into Persian, under my own inspection from the Malabarie copy procured from one of the Rajahs of Zamorin’s family), the origin of that coast is ascribed to the piety or penitence of Puresuram or Pruseram (one of the incarntions of Vishnu), who stung with remorse for the blood he had so profusely shed in overcoming the Rajahs of the Kshatery tribe, applied to Varuna, the God of the ocean, to supply him with a tract of ground to bestow on the Brahmans; and Varuna accordingly having withdrawn his waters from the Gowkern (a hill in the vicinity of Mangalore) to Cape Comorin, this trip of territory has, from its situation, as lying along the foot of the Sukhien (by the Europeans called the Ghaut) range of mountains, acquired the name of Mulyalum (i.e, skirting at the bottom of the hills), a term that may have been shortened into Maliyam or Maleam, whence are also probably its common names of Mulievar and Malabar; all of whcih Purseram is firmly believed, by its native Hindus inhabitants, to have parcelled out among different tribes of Brahmans, and to have directed that the entire produce of the soil should be appropricated to their
maintenance and towards the edifications of temples, and for the supports of divine worship; whence it still continues to be distinguished in their writing by term of Kerm-bhoomy or ‘the Land of good works for the expiation of sin. The country thus obtained from the ocean, is represented to have remained long in a marshy and scarcely habitable state; in so much, that the first occupants, whom Purseram is said to have brought into it from the eastern and even the northern part of India, again abandoned and it, being more especially scared by the multitude of serpents with which the mud has then abounded, and to which numerous accidents are ascribed. Until Purseram taught the inhabitants to propitate these animal, by introducing the worship of them, and of their images, which became from that period objects of adoration.
maintenance and towards the edifications of temples, and for the supports of divine worship; whence it still continues to be distinguished in their writing by term of Kerm-bhoomy or ‘the Land of good works for the expiation of sin. The country thus obtained from the ocean, is represented to have remained long in a marshy and scarcely habitable state; in so much, that the first occupants, whom Purseram is said to have brought into it from the eastern and even the northern part of India, again abandoned and it, being more especially scared by the multitude of serpents with which the mud has then abounded, and to which numerous accidents are ascribed. Until Purseram taught the inhabitants to propitate these animal, by introducing the worship of them, and of their images, which became from that period objects of adoration.
In manuscript account of Malabar that I have seen and which is ascribed to a Bishop of Virpoli, (the seat of a famous Roman Catholic seminary near Coachin), he observes, that by the accounts of the learned natives of the Coast, it is little more than 2300 years since the sca came up to the foot of the Sukhien or Ghaut mountains; and that once did so he thinks extremely probable from the nature of and the quantity of land, oyster-shells and other fragments, met with in making deep excavations.
The country of Malyalum was according to the Kerul-oodputtee, afterwards divided into the following Tookrees or divisions.
1st. from Gowkern, already mentioned, to the Perumbura river, was Called the Tooroo or Tnuru Rauje.
2nd. from the Perumbura to Poodumputtum, was called the Moshak Rauje.
3rd. from Poodum or Poodumputtum, to the limits of Kunety was catled the Kerul or Keril Rauje and as the principal seat of the ancient government was fixed in this middle division of Malabar. Its name prevailed over and was in course of time under stood in a general sense to comprehend the three others.
4th. from Kunety to Kunea Loomary or Cape Comorin was called the Koop Rajue.
However this may he, according to the book above quoted, the Brahmans appear to have first set up and for some time maintained, a fort of republican or aristocratical government, under two or three principal chiefs, elected to administer the government, which was thus carried on, till, on jealousies arising among themselves, the great body of the Brahman landholders had recourse to foreign assisstance, which terminated either by conquest or coverntion in their receing to rule over them a Permal, or Chei Governor from the Prince of the neighbouring country of Choldesh (a part of the Southern Cornatic), this succession of viceroys was changed and relived every twelve years till at length one of those officers named Sheoram or Shermanoo Permaloo, and by others called Cheruma Perumal appears to have rendered himself so popular during his government, that at expiration of its term he was enabled, by the encouragement of those over whom his delegated sway had extended to confirm his own authority, and to set at defience that of his late soverign, the Prince of the Choldesh, who is known in their book by the name of Rajah Kishan Rao, and who having sent an army to Malabar with a view to recover his authority, is statated to havebeen successfully withstood by Shermanoo and the Malabarians; an event which is supposed to have happened about 1000 years anterior to the present period, and is otherwise worthy of notice.
इसका भावार्थ यह हैं कि 'केरल-उत्पत्ति नामक पुस्तक में (जिसका 1793 ई. में कालीकट में अपने रहने के समय मैंने यथाशक्ति अंग्रेजी में उत्तम अनुवाद उसके फारसी मंभ अनुवादित उस ग्रन्थ से किया जो प्रथम मालाबारी भाषा की पुस्तक से मेरे सामने लिखा गया था, और जो मालाबारी भाषा की पुस्तक जमोरिन वंशज एक राजा के यहाँ मिली थी) मालाबार किनारे की उत्पत्ति परशुराम (जो कि विष्णु के अवतारों में से थे) के उस प्रायश्चित के कारण बताई गयी हैं, जो उन्होंने क्षत्रिय राजाओं के नाश के लिए खून बहाने के शोक से किया था और जिसके लिए समुद्रपति (देवता) वरुण से यह प्रार्थना की कि उन्हें वे थोड़ी सी भूमि ब्राह्मणों को दान करने के लिए दे। तदनुसार वरुणदेव ने मंगलोर के समीपवर्ती गोकर्ण पर्वत से कुमारी अन्तरीप तक का जल हटा लिया और इस प्रकार वह भूखण्ड सुखेन (घाट) पर्वत के मूल में रहने से मूल्यलम कहलाया, जिसका अर्थ यह होता हैं कि 'पर्वत की जड़ में निकला हुआ' और सम्भव हैं कि यही शब्द संक्षिप्त होकर 'मलियम' हो गया हो और इसी से सम्भवत: इसके साधारण नाम मालेबार और मालाबार पड़े हों। इसके निवासी हिन्दुओं का यह दृढ़ विश्वास हैं कि इस सम्पूर्ण भू-भाग को परशुरामजी ने वहाँ की भिन्न-भिन्न ब्राह्मण जातियों में विभक्त कर दिया था और उनको यह शिक्षा दी थी कि इस भूमि की सम्पूर्ण पैदावार को वे लोग अपने पालन, मन्दिरों की मरम्मत और देवपूजाओं में खर्च किया करें। इसलिए उसी समय से इस भूमि को वे लोग अपने कागजों में 'कर्मभूमि' (अर्थात् पाप के प्रायश्चित के लिए सत्कार्य करने की भूमि) लिखने लगे और अब तक वैसा ही करते हैं। इस प्रकार जो देश समुद्र से मिला वह बहुत दिनों तक दलदल से पूर्ण था, जिसमें लोग कठिनता से निवास कर सकते थे। उसकी ऐसी दशा थी कि जिन प्रथम के ब्राह्मणों को परशुरामजी ने वहाँ भारतवर्ष के उत्तर और पूर्व भाग से लाकर बसाया था, उन लोगों ने फिर उसे छोड़ दिया। क्योंकि उस समय उसकी कीचड़ में रहने वाले बहुत से सर्पों से उन्हें बहुत भय हुआ और बहुत से ब्राह्मण उनसे मर भी गये। जब तक कि ये फिर परशुराम ने वहाँ के निवासियों को उन सर्पों और उनकी मूर्तियों की पूजा द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की शिक्षा न दी तब तक यह बात रही और वह पूजा उस समय से होने लगी। मालाबार के एक प्राचीन लेख में, जिसे मैंने देखा हैं और जो विरापोली (कोचीन के निकट रोमन कैथोलिक पाठशाले की जगह) क़े एक बिशप (पादरी) के पास था, यह लिखा हुआ बतलाया जाता हैं कि पढ़े-लिखे मालाबारियों के कथन से कुछ अधिक 2300 वर्षों से समुद्र घाट के पहाड़ों की जड़ में नहीं आया हैं और यह बात वहाँ की भूमि के विस्तार और उन सीप या घोंघे वगैरह के देखने से बिलकुल ही सत्य प्रतीत होती हैं, जो खोदने से भूगर्भ में पाये जाते हैं। 'केरल उत्पत्ति' पुस्तक के अनुसार मलयालम (मालाबार) देश पीछे से चार भागों या टुकड़ों में विभक्त किया गया। जिनमें से प्रथम भाग, जो गोकर्ण से परम्बरा नदी तक था, 'तूरू' राज्य कहलाया। दूसरा, जो परम्बरा नदी से पदमपुत्ताम (पदमपुर) तक था, 'मशक' राज्य कहलाया। तीसरा, जो पदम या पदमपुत्ताम से कुनटी की सीमा तक था 'केरल' राज्य कहलाया और चूँकि पुरानी राजधनी मालाबार के इसी मध्य भाग में थी इसलिए इसी का नाम चारों ओर फैल गया और कुछ दिन बाद लोग शेष तीन खण्डों के सहित सबको सामान्यत: 'केरल' ही समझने लगे। और चौथा भाग, जो कुनटी से कुमारी अन्तरीप तक था 'कूप' राज्य कहलाता था।
अस्तु जो कुछ भी हो। पूर्वोक्त पुस्तक (केरल-उत्पत्ति) के अनुसार पहले पहल ब्राह्मणों ने राज्य-
प्रबन्ध के लिए चुने गये दो या तीन सरदारों के अधीन प्रजा-सत्ताक राज्य प्रबन्ध चलाया और उस दिन तक उसे कायम रखा जब कि परस्पर द्वेष के कारण अधिकांश जमींदार ब्राह्मण अन्य देशीयों से सहायता की बातचीत करने लगे और उनकी समाप्ति विजय या परस्पर सुलह से हो गयी। जिसमें उन लोगों के ऊपर शासन करने के लिए एक चीफ गवर्नर पड़ोस के चोल देश (कर्नाटक के दक्षिण भाग) के शहजादे की तरफ से नियत किया गया। इन वाइसरायों (चीफ गवर्नरों) की तबदीली हर बारहवें बरस होती हुई उस समय तक चली गयी जब कि उन्हीं अफसरों में एक ने, जिसका नाम शिवराम या शरमनू परमलू था, अपने को उन ब्राह्मणों की दृष्टि में अपने प्रबन्ध काल में ही ऐसा प्रेमपत्र बनाया कि जब उसके शासन काल का अन्त आया तो जिनके ऊपर वह राज्य करता था उनकी सहायता से अधिकार को दृढ़ बनाने में समर्थ हुआ और चोल देश के राजा के अधिकार को हटा दिया। उस राजा का नाम किशनराव था। उस राजा ने अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करने के लिए फौज भेजी। परन्तु कहा जाता हैं कि शरमनू और मालाबारियों ने उसे हरा दिया। बात आज (1793) से लगभग 1000 वर्ष हुई और ध्यान देने योग्य हैं।''
प्रबन्ध के लिए चुने गये दो या तीन सरदारों के अधीन प्रजा-सत्ताक राज्य प्रबन्ध चलाया और उस दिन तक उसे कायम रखा जब कि परस्पर द्वेष के कारण अधिकांश जमींदार ब्राह्मण अन्य देशीयों से सहायता की बातचीत करने लगे और उनकी समाप्ति विजय या परस्पर सुलह से हो गयी। जिसमें उन लोगों के ऊपर शासन करने के लिए एक चीफ गवर्नर पड़ोस के चोल देश (कर्नाटक के दक्षिण भाग) के शहजादे की तरफ से नियत किया गया। इन वाइसरायों (चीफ गवर्नरों) की तबदीली हर बारहवें बरस होती हुई उस समय तक चली गयी जब कि उन्हीं अफसरों में एक ने, जिसका नाम शिवराम या शरमनू परमलू था, अपने को उन ब्राह्मणों की दृष्टि में अपने प्रबन्ध काल में ही ऐसा प्रेमपत्र बनाया कि जब उसके शासन काल का अन्त आया तो जिनके ऊपर वह राज्य करता था उनकी सहायता से अधिकार को दृढ़ बनाने में समर्थ हुआ और चोल देश के राजा के अधिकार को हटा दिया। उस राजा का नाम किशनराव था। उस राजा ने अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करने के लिए फौज भेजी। परन्तु कहा जाता हैं कि शरमनू और मालाबारियों ने उसे हरा दिया। बात आज (1793) से लगभग 1000 वर्ष हुई और ध्यान देने योग्य हैं।''
इस पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट हैं कि कर्नाटक से मिला हुआ और उसकी सीमा पर ही पदमपुर स्थित हैं। इसी से किनवार ब्राह्मणों की वंशावली ने उसे पदमपुर कर्नाटक लिखा हैं। यह भी स्पष्ट हैं कि वहाँ जो ब्राह्मण लाये जाकर उस देश के राजा या जमींदार बनाये गये वे उत्तर-पूर्व भारत अर्थात् कान्यकुब्ज देश से ही लाये गये। यह बात सत्य भी हैं, क्योंकि कान्यकुब्ज देश में बहुत प्राचीन काल से ही ब्राह्मणों का निवास चला आता हैं। इसलिए इन किनवार ब्राह्मणों का वहाँ से आना मान भी लिया जाये तो भी ये लोग वास्तव में कान्यकुब्ज ही हैं। और यदि पदमपुर से आये भी होंगे तो, या तो जैसा कि ऊपर लिखा हैं कि सर्पों के भय से बहुत से ब्राह्मण लोग भाग गये, उसके अनुसार लगभग 2300 वर्षों से ही वहाँ से आये अथवा जो युद्ध आज से 1100 वर्ष पूर्व कर्नाटक देश के राजा और मालाबारियों एवं शिवराम के बीच हुआ था उसमें ही हटकर चले आये। क्योंकि शिवराम या उन लोगों की विजय हुई सही, तथापि एक राजा के विरुद्ध लड़ने से उनको बहुत कष्ट भोगना पड़ा और बहुत ह्स हो गया। जिससे शिवराम (जिसके लिए युद्ध ठाना गया था) भी दु:खी होकर युद्ध के बाद कहीं अन्यत्रा चला गया। यह बात आगे चलकर उसी 'केरल उत्पत्ति' में लिखी गयी हैं और चूँकि वे लोग इसी देश से गये थे, अत: फिर यहीं चले आये। युद्ध के समय का आना ही विशेष विश्वसनीय हो सकता हैं, क्योंकि उन दिनों सभी देशों में गड़बड़ मच रही थी और लोग ईधर-उधर भाग रहे थे। जो कुछ भी हो, चाहे किनवार ब्राह्मण पदुमपुर से आये अथवा कन्नौज से ही, परन्तु ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण, दीक्षित और काश्यप गोत्री हैं और इस समय भूमिहार ब्राह्मण कहे जाते हैं।
किनवार क्षत्रियों का जो केवल बलिया के छत्ता और सहतवार आदि गाँवों में पाये जाते हैं, विवरण प्रथम ही सुना चुके हैं और जहाँ पर किनवार ब्राह्मण गाजीपुर के मुहम्मदाबाद परगने में भरे पड़े हुए हैं और वीरपुर, नारायणपुर, कुण्डेसर, भरौली, विश्वम्भरपुर, परसा, लट्ठूडीह गोढ़उर और करीमुद्दीनपुर आदि उनके बड़े-बड़े ग्राम हैं। वहाँ उनसे पृथक् दो या चार गाँवों में रहने वाले क्षत्रियों की बात वही हो सकती हैं जैसी कि कही जा चुकी हैं, और वही बात सन् 1880-85 ई. के गाजीपुर की सेट्लमेण्ट रिपोर्ट में उस समय के कलेक्टर विलियम इरविन (William Irvine) ने यों लिखी हैं :
Amog Dichhit had three sons, kulkal Rai, Baijal Rai and Mahipal Rai. As they thought that they could not perform all the religious ceremonies required, they began to call themselves Rai, Kulkal Rai, without the consent of his brothers, married the daughter of a chhatri in Pargana Panchotor, and therefore he was excluded from his caste of Brahman; but the two brothers, having taken pity on him, gave him some property and the village Chhata in the Ballia district; as is recorded in the following verse:
Bijal o mahipal bhum adha kar lin;
Jeth putra Kulkal tahiko chhata din.—Page 33.
इसका मर्मानुवाद यह हैं कि 'किनवारों के पूर्वज अमोघ दीक्षित के कलकल राय, बैजल राय और महीपाल राय तीन पुत्र थे। उन्होंने समझा था कि हम लोग पुरोहिती आदि नहीं करवा सकते हैं, इसलिए अपने को दीक्षित की जगह राय कहने लगे। कलकल राय ने बिना अपने भाइयों की सम्मति के ही पचोतर परगने के किसी क्षत्रिय की पुत्री से ब्याह कर लिया, इसलिए वे अपनी ब्राह्मण जाति से च्युत कर दिये गये। परन्तु दोनों छोटे भाईयों ने उनके ऊपर दया करके कुछ धन और बलिया जिले का छाता गाँव उन्हें दे दिया। जैसी कि कहावत हैं कि ''बैजल और महिपाल भुइं आधा करि लीन। जेठ पुत्र कलकल, ताहि को छाता दीन''। किनवारों के पुरोहित जो नगवाँ पाण्डे कहलाते हैं, काश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह प्रसिद्ध हैं एवं उनकी वंशावलियों में भी लिखा हैं कि वे और किनवार दोनों भाई हैं। एक भाई का वंश यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित।
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