रुस्तम-ए-हिंद
हिंद केसरी मंगला राय
पूरनमासी के चांद की तरह शांत और निश्छल, सागर से भी गहरे, आकाश से भी ज्यादा तेजस्वी, कुश्ती के प्राणतत्व और ख्यातिलब्ध पहलवान मंगला राय ने देश में वो ऊंचा कीर्तिमान स्थापित किया, जनपद गाजीपुर और उत्तर प्रदेश को वो गौरव प्रदान किया जिसकी न तो पुनरावृत्ति संभव है और ना ही विस्मृत किया जाना। गाजीपुर और उत्तर प्रदेश की इस अद्भुत शख्सियत का जन्म पावन गंगा की गोद और उसके प्रसाद स्वरूप करइल की माटी में हुआ था। गौरतलब है कि कुश्ती के क्षेत्र में ऊंचा मकाम हासिल करने वाले कमार, आमिर फत्ते, हरी नारायण सिंह, हनुमान पांडे और राजनारायण राय जैसे पहलवानों का जन्म भी गाजीपुर की धरती पर ही हुआ था जिन्होंने अपनी कुश्ती-कला और प्रतिभा से राष्ट्र को गौरवान्वित किया।
गाजीपुर में विजयदशमी का पर्व विशेष उल्लास से मनाया जाता है। इसी दिन भगवान राम ने रावण की आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर सत्य और मर्यादा की पताका फहराई थी। इस दिन गाजीपुर में लोग अपने दैनन्दिन कार्यों से अवकाश लेकर एक दूसरे के घर या दरवाजे पर शिष्टाचार मुलाकात या अभिवादन के लिए जाते हैं। अपने साहस, ऊर्जा और पराक्रम से भारत में कुश्ती के क्षेत्र में नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले मंगला राय से मुलाकात करने और संवाद के लिए मैने इसी अवसर को जानबूझकर चुना।गंगा के हरे-भरे किनारो से होते हुए मैं मुझे उस गांव तक पहुंचना था। ये पूरा इलाका अत्यन्त उपजाऊ और यहां के निवासी समृद्ध थे। विजयदशमी के दिन जब शाम का धुंधलका छाने को था मैने मंगला राय को अपने दरवाजे पर एक चारपाई पर लेटे दिनमान पत्रिका पढ़ते पाया। मुझे देखते ही वो चारपाई से उठ खड़े हुए और मेरा हालचाल पूछा। फिर शुरू हुई हमारी बातचीत।
मैं ये देखकर आश्चर्यचकित था कि उम्रदराज होने के बावजूद वो पूरी तरह से फिट और मजबूत कदकाठी के दिख रहे थे। उनके चेहरे पर ढलती उम्र का नामोनिशान तक नहीं था। पतली कमर, चौड़ा सीना, फौलादी जिस्म, महान कीर्तिमानों से दपदपाता हुआ चेहरा मानो अभी भी चुनौती दे रहा था कि है कोई मेरी जोड़ का पहलवान इस देश में?
कुश्ती कला के महारथी मंगला राय का जन्म गाजीपुर जनपद के जोगा मुसाहिब गांव में सन् 1916 के क्वार महीने में हुआ था। उनके पिता का नाम रामचंद्र राय था। रामचंद्र राय और उनके छोटे भाई राधा राय अपने जमाने के मशहूर पहलवान थे। उन्ही की तरह मंगला राय और उनके छोटे भाई कमला राय ने भी कुश्ती में काफी नाम और यश प्राप्त किया। रामचंद्र राय और राधा राय दोनों अपने जवानी के दिनों में जीविकोपार्जन के चलते म्यामार (बर्मा) के रंगून में रहते थे जहा दोनों एक अखाड़े में रोजाना रियाज और कसरत करते थे। दोनो भाइयों में राधा राय ज्यादा कुशल पहलवान थे और उन्होंने ही अपने दोनों भतीजों को कुश्ती की पहली तालीम दी और दाव-पेंच के गुर सिखाए।
महाबली मुस्तफा के धूल चाटते ही
बदल गया इतिहास
बदल गया इतिहास
मैने मंगला राय जी से पूछा कि कब उन्होंने अखाड़े में कुश्ती लड़नी शुरू की और कब उन्होंने प्रतिद्वंद्वियों को ललकारने की शुरुआत की। उन्होंने जवाब दिया कि जब वो सोलह साल के थे तब अखाड़े मे अभ्यास करना शुरू कर दिया था। लेकिन पहली प्रतियोगिता में उन्होंने तब भाग लिया जब वो सत्रह साल के हो गए। यानी साल 1933 में पहली बार मंगला राय जी ने अपने मुकाबले में खड़े दूसरे पहलवान के खिलाफ ताल ठोंकी थी। लेकिन वो हाथ उन्ही पहलवानों से मिलाते थे जिनका जिस्म उन्ही की तरह फौलादी था। सौभाग्य से बनारस के बभनपुरा (जाल्हूपुर) के मशहूर पहलवान शिवमूरत तिवारी भी उन दिनों वर्मा की राजधानी ‘रंगून’ में ही रहते थे। तिवारी जी ने अपने इस शागिर्द को चीनी और जापानी पहलवानों के कई पेंचीदा दांव सिखाए। कुछ साल बाद मंगला राय जी अपने छोटे भाई कमला राय के साथ स्वदेश वापस लौट आए और अपने गांव जोगा मुसाहिब में ही रियाज करना शुरू कर दिया।
बचपन से ही उन दोनों भाइयों को उनके पिता और चाचा ने सादगी का ऐसा पाठ पढाया कि जीवन पर्यन्त अभिमान उनके आस-पास भी नहीं फटक पाया। साफ-सफाई उन्हे इस कदर पसंद थी कि उनके कपड़ों पर एक छोटा सा दाग भी नहीं पाया जा सकता था। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत थी मानव मात्र के प्रति उनकी उदारता। राय साहब अपने साथ रहने वाले पहलवानों के भोजन और अन्य दूसरे खर्चों को खुद वहन करते थे।।
लेकिन सच्चाई ये भी है कि मंगला राय जी को अपने घर और परिवार के साथ समय गुजारने का समय लंबे समय तक नहीं मिला। किसी न किसी को उनके समय की दरकार लगातार रहती थी। रंगून में रहते हुए सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और जापान के पहलवानों पर लगातार मिली जीतों के चलते वो इतने मशहूर हो चले थे कि गांव लौटने पर उनकी एक झलक पाने के लिए दूरदराज और आस-पास के गांवों के लोगों की उनके दरवाजे और गांव के अखाड़े पर लागातार भीड़ लगी रहती थी। उनके प्रशंसकों में पड़ोस के गोड़उर गांव के धर्मदेव पांडे भी शामिल थे। पांडेजी को कुश्ती से बेहद लगाव था। पांडे जी मंगला राय के पिता रामचंद्र राय से एक दिन मिलने कुछ उसी अंदाज में आए जिस अंदाज में राजा दशरथ के पास ऋषि विश्वामित्र पहुंचे थे और उन्होंने राम-लक्ष्मण दोंनों भाइयों को अपने आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिए मांग लिया। राय साहब के पिताजी पांडेजी की बात को मना नहीं कर सके और मंगला राय-कमला राय दोनो भाई गोड़उर आ गए। लेकिन वहां भी अखाड़े में रियाज करते और खुश्ती लड़ते दोनों भाइयों को देखने वालों का हुजूम लगा रहता था। दोनों पहलवानों की कदकाठी, फौलादी जिस्म, उनके दांव और बचाव के बाद तेज वार को देखकर लोग दांतो तले उंगली दबा लिया करते थे।
गंगा के तट पर रहना, गंगा स्नान करना और कुछ समय तक एकांत में चिंतन-मनन करना मंगला राय जी का प्रिय शगल था। लेकिन इन सबके बीच एक खास चीज और थी जो उन्हे दूसरे पहलवानों से अलग करती थी। जहां दूसरे पहलवान अखाड़े में समय बिताने के बाद भोजन-नाश्ता करके दिन भर खर्राटे भरते थे वहीं मंगला राय जी को पढ़ने-लिखने से काफी लगाव था। अखाड़े में अभ्यास के बाद हर समय कोई न कोई पुस्तक उनके हाथ में जरूर रहती थी।
मंगला राय की यश और कीर्ति लगातार फैल रही थी। उन्ही दिनों नारायणपुर गांव के लोग मंगला राय जी के पास अपनी विनती लेकर पहुंचे। नारायणपुर के लोग चाहते थे कि राय साहब उनके गांव में रहकर अभ्यास करें। लेकिन राय साहब को अब एक और दूसरे गांव में जाकर रहना मंजूर नहीं था। काफी दिनों तक मान-मनौव्वल का सिलसिला चला। फिर नारायणपुर के लोगों ने एक ही कुल और खानदान ‘किनवार वंश’ की कसम रखी। इसके बाद तो सरल स्वभाव के राय साहब को उनकी बात माननी ही थी। फिर क्या था आनन-फानन में गंगा के किनार एक बगीचे में मंगला राय जी के लिए अखाड़ा बनवाया गया और उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने का ठोस बंदोबस्त भी हुआ। गौरतलब है कि इस अखाड़े के उस पार ही ऋषि विश्वामित्र का अति प्रचीन आश्रम भी है। यहां रहते हुए बाबू मंगला राय जी ने अपनी कुश्ती-कला को और निखारा। अब वो प्रतिदिन बीस से पच्चीस पहलवानों से तीन-तीन बार कुश्ती लड़ते थे। इन पहलवानों में दरभंगा के दुखराम, आजमगढ़ के सुखदेव, मथुरा के मोहन चौबे, राय साहब के छोटे भाई कमला राय, ब्रह्मचारी राय, मथुरा राय और बालेश्वर पहलवान शामिल थे। ये सभी पहलवान अपने घर-परिवार से दूर कुश्ती सीखने के लिए मंगला राय के साथ ही रहते थे और इन सभी का खर्च भी राय साहब ही उठाते थे।
मंगला राय जी को शुरुआती प्रसिद्धि तभी मिल गई थी जब वो रंगून से अपने वतन वापस लौट कर आए थे। वापस आते ही उन्होंने उत्तर भारत के मशहूर पहलवान मुस्तफा हुसैन को अखाड़े में ललकारा। इलाहाबाद में हुई इस कुश्ती में मुस्तफा ने इस नौजवान को शुरु में हल्के में लिया लेकिन जब इस नौजवान ने जब मुस्तफा के खतरनाक दांव को काटकर अपना प्रिय दांव ‘टांग’ और ‘बहराली’ का प्रहार किया तो महाबली मुस्तफा भहराकर चारो खाने चित हो गया। दर्शकों को सांप सूंघ गया। किसी को अपनी आंखो पर यकीन ही नहीं हो रहा था। लेकिन राय साहब ने तो संयुक्त प्रांत में कुश्ती का इतिहास पलट दिया था। भारतीय कुश्ती में एक नए सितारे ने रोशनी बिखेर दी थी। मंगला राय की प्रसिद्धि जंगल की आग की तरह फैल गई। नतीजा ये हुआ कि बत्तीस साल के मंगला राय को साल भर के भीतर लगातार 100 कुश्तियां लड़नी पड़ी। महाबली मुस्तफा को पटकने के बाद महामल्ल मंगला राय से हर तीसरे-चौथे रोज कोई न कोई पहलवान भिड़कर जोर आजमाइश करना चाहता था। सिलसिला लंबा चला लेकिन लगातार धूल चाटने के बाद उत्तर भारत के पहलवानों का हौसला पस्त हो गया। इसके बाद पटियाला,पंजाब के रुस्तम-ए-हिंद केसर सिंह चीमा ने मंगला राय से अखाड़े में हाथ मिलाया। दोनों महामल्ल सूरमा एक दूसरे से भिड़ गए। अखाड़े की दहलीज थरथराने लगी। लोगों की सांसे थम गईं। दोनो भीमकाय योद्धाओं को समा पाने में वो अखाड़ा छोटा पड़ने लगा। दोनों ताल ठोंकते तो बादल की गड़गड़ाहट फीकी पड़ने लगती। कोई नतीजा नहीं निकला और दंगल बराबरी पर छूट गया। मंगल राय जी ने बाद में कहा था कि ये कुश्ती गंगा के किनारे खुले रेत में होनी चाहिए तभी इसका कोई फैसला हो पाएगा। लेकिन बाद में बहुत कम लोग मंगला राय जी को चुनौती देने की हिम्मत जुटा पाए।
मंगला राय जी प्रतिदिन जो अभ्यास करते थे उसके बारे में सुनकर ही कई पहलवानों का कलेजा कांप जाता था। खुद राय साहब के मुताबिक वो रोजाना चार हजार बैठकें और ढाई हजार दंड लगाते थे। इसके बाद वो 25 धुरंधरों से तीन-तीन बार कुश्ती लड़ते थे। बाद में दौड़ने रस्सी चढ़ने और मुगदर भांजने की कसरतें वो अलग से करते थे। इतना सुनकर भला कौन पहलवान उनसे हाथ मिलाने का साहस कर पाता। 6 फीट लंबे 131 किलो वजनी भीमकाय कदकाठी के बावजूद मंगला राय जी पूरे सात्विक और शाकाहारी व्यक्ति थे। उनके आहार में आधा किलो घी, आठ लीटर दूध और एक किलो बादाम शामिल था।
मंगला राय का मानना था कि गुरु तो कोई भी बन सकता है लेकिन सच्चा गुरु वही है जो अपने शिष्यों को शिक्षा के साथ उनकी देखभाल भी वैसे ही करे जैसे वो अपनी संतान का करता है। और इस मायने में राय साहब एक आदर्श गुरु थे। बाद के दिनों में जब उन्होंने कुश्ती से संन्यास ले लिया तो उनको नौजवान पहलवानों को देखकर ग्लानि होती थी। उनका मानना था कि आज के पहलवान कुश्ती-कला के बुनियादी उसूलों से भटककर फैशनपरस्त हो गए हैं। उनमें सिर्फ नाम और दौलत कमाने की ललक रह गई है। जबकि एक पहलवान का जीवन योगी के मानिंद होना चाहिए। शायद सही थे मंगला राय जी....नमन् !!!
स्रोत :
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पुस्तक – “द रेसलर्स बॉडी : आईडेंटिटी एंड आईडियोलॉजी इन नॉर्थ इंडिया”
लेखक – जोसफ एस. ऑल्टर
प्रकाशक – कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी प्रेस, बर्कले, संयुक्त राज्य अमेरिका
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क्या यह पुस्तक हिन्दी मे आ गई है
ReplyDeleteजी नहीं, उपरोक्त पुस्तक का अभी तक हिंदी अनुवाद नहीं हुआ है।
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