Kinwar Bhumihar किनवार वंश: गाजीपुर और ‘वंदेमातरम्’ की रचना
क्या संबन्ध हो सकत...: गाजीपुर और ‘ वंदेमातरम् ’ की रचना क्या संबन्ध हो सकता है आपके पूर्वजों का राष्ट्रगीत वंदेमातरम् के साथ ? गाजीपुर जनपद के रवीन्द्रनाथ...
Tuesday, April 28, 2015
गाजीपुर और ‘वंदेमातरम्’ की रचना
क्या संबन्ध हो सकता है आपके पूर्वजों का राष्ट्रगीत वंदेमातरम्
के साथ ? गाजीपुर जनपद के रवीन्द्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद के साथ
करीबी रिश्तों के बारे में शायद ही किसी को बताने
की जरूरत हो। लेकिन क्या आपको पता है कि बंकिमचंद्र चटर्जी और उनकी रचना
"वंदेमारतम" का आपसे बहुत करीब का रिश्ता है ?
साल 1873 के दिसंबर की 15 तारीख थी। बंगाल के मुर्शिदाबाद में
लेफ्टिनेंट कर्नल डफिन अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था। तभी सामने से एक
पालकी गुजरी। कर्नल ने पालकी रुकवाई और उसमें सवार हिंदुस्तानी को फौरन उतर जाने
का आदेश दिया। लेकिन उस हिंदुस्तानी ने उसकी बात मानने से इनकार कर दिया। कर्नल
डफिन गुस्से में आ गया उसने सिपाहियों को हुक्म देकर उस शख्स को पालकी से उतरवा
दिया। ये बात वहां मैच देख रहे तमाम लोगों को अपमानजनक लगी। उस पालकी में
मुर्शिदाबाद में बेहरामपुर के डिप्टी कलेक्टर बंकिमचंद्र चटर्जी सवार थे।
अपमानित से बंकिमचंद्र ने दफ्तर पहुंचते ही लंबी छुट्टी की
अर्जी दे डाली और जरूरी कागजात समेटकर घर निकलने की तैयारी कर ही रहे थे कि सामने एक
हंसमुख नौजवान ने उनका रास्ता रोका। ये थे लालगोला रियासत के ‘महाराजा योगेन्द्र नारायण राय’।
राजा साहब ने पूछा तो बंकिमचंद्र ने नौकरी को लात मार देने की बात बताई। लेकिन
राजा साहब ने उन्हें रोका और अपमान के चलते भागने की बजाय इसकी लड़ाई कोर्ट में
लड़ने की सलाह दी।
बंकिमचंद्र ने कोर्ट में अपील की और लालगोला राजमहल का रुख
किया। इसी महल में रहकर बंकिमचंद्र ने अपने मशहूर उपन्यास आनंदमठ की रचना शुरू की।
बंकिमचंद्र लालगोला राजमहल के काली मंदिर में पुरोहित 'काली ब्रह्मभट्ट' को एक खास
मंत्र से पूजा करते देखते रहते। उस मंत्र का एक श्लोक था , "बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्, रिपुदल वारिणीम् मातरम्"। इस श्लोक के ओजस्वी पाठ को सुनकर बंकिमचंद्र की धमनियां फड़कने
लगतीं। उन्होंने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में इस श्लोक से प्रेरित होकर ‘वंदेमातरम्’ की रचना कर डाली।
आपको बता दें कि संकट की घड़ी में बंकिमचंद्र को आश्रय देने वाले
और उनके मुकदमे का सारा खर्च उठाने वाले ‘राजा
योगेन्द्र नारायण राय’ के पूर्वज गाजीपुर के ‘सुरवत पाली’ गांव से बंगाल
गए थे। उनको बंगाल ले जाने वाले और कोई नहीं बल्कि आपके करइल क्षेत्र के ही ‘सोनाड़ी’ गांव के एक बहादुर नौजवान थे।
लालगोला राज का इतिहास
मूल्हन दीक्षित के पौत्र 'होम
दीक्षित'
के पोते 'पृथ्वीराज शाह' के खानदान में ‘सोनाड़ी’
गांव के एक नौजवान 'तुगलक
वंश' के शासनकाल में घुड़सवार सेना के
सरदार थे। जिन्हें बगावत को दबाने के लिए दिल्ली से बक्सर
आई पलटन के साथ बंगाल भेजा गया। इस पलटन में इस नौजवान के साथ 'सुरवतपाली' के उसके रिश्तेदार दो नौजवान भाई
भी शामिल थे। इन दोनों भाइयों का नाम था 'लालसिंह
पांडे' और 'भगवानसिंह पांडे'।युद्ध के बाद बंगाल के बागियों ने हथियार डाल दिए। इस जीत के
बाद ग्राम ‘सोनाड़ी’
के नौजवान सरदार ने 'मालदा' में 'सिंहाबाद
रियासत' की नींव रखी जबकि 'सुरवतपाली' के
दोनों भाई मुर्शिदाबाद' में
'लालगोला रियासत' के हुक्मरान बने। कालांतर में 'सिंहाबाद' की
तुलना में 'लालगोला' ने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। 'लालगोला के राजा' देशभक्तों के आश्रयदाता थे। महाराजा योगेन्द्रनारायण राय अपने जीवन काल तक अपने पुरखों की जड़ों को
नहीं भूले। उनकी रियासत में सभी विश्वासपात्र कर्मचारी गाजीपुर से ही लाए जाते थे।
महाराजा योगेन्द्रनारायण की छोटी बेटी का विवाह ग्राम सुहवल के सुरेंद्र राय के
साथ हुआ था, जो उस जमाने में एम.ए. तक पढ़े थे। हांलाकि बाद की पीढ़ी का
अपने पूर्वजों की भूमि से कोई लगाव नहीं रहा। आज की पीढ़ी से बात करने पर वो इतना
तो बताते हैं कि उनके पूर्वज तुगलक वंश के शासन काल में गाजीपुर से आए थे लेकिन वो
अपने मूल निवास के बारे में कुछ नहीं जानते।
Saturday, April 25, 2015
Kinwar Bhumihar किनवार वंश: बाबू अजायब सिंह के परिवारकी शहादत किनवार वंश के...
Kinwar Bhumihar किनवार वंश: बाबू अजायब सिंह के परिवारकी शहादत
किनवार वंश के...: बाबू अजायब सिंह के परिवार की शहादत किनवार वंश के इतिहास का एक सिरा काशी राज के सिंहासन से भी जुड़ता है।अगर इस सिरे की डोर पकड़े इत...
किनवार वंश के...: बाबू अजायब सिंह के परिवार की शहादत किनवार वंश के इतिहास का एक सिरा काशी राज के सिंहासन से भी जुड़ता है।अगर इस सिरे की डोर पकड़े इत...
बाबू अजायब सिंह के परिवार की शहादत-3
1857 से 76 साल पहले...
इतिहास वही नहीं है जो इतिहास की किताबों में दर्ज है। इतिहास वो भी है जो जनमानस की स्मृतियों में दर्ज है, भले ही उसे सरकारी इतिहास के पन्नों में जगह मिली हो या नहीं। सर्वमान्य तथ्य है कि मुल्क की आजादी की पहली जंग 1857 में हुई थी। लेकिन सच ये भी है कि इस जंग से 76 साल पहले बनारस की सड़को पर ऐसा भयानक युद्ध हुआ कि अंग्रेजों की रूह कांप गई।
1857 से 76 साल पहले...
इतिहास वही नहीं है जो इतिहास की किताबों में दर्ज है। इतिहास वो भी है जो जनमानस की स्मृतियों में दर्ज है, भले ही उसे सरकारी इतिहास के पन्नों में जगह मिली हो या नहीं। सर्वमान्य तथ्य है कि मुल्क की आजादी की पहली जंग 1857 में हुई थी। लेकिन सच ये भी है कि इस जंग से 76 साल पहले बनारस की सड़को पर ऐसा भयानक युद्ध हुआ कि अंग्रेजों की रूह कांप गई।
आजादी का पहला बिगुल काशी में ही बजा था। उधर किले के अंदर घमासान मचा
हुआ था इधर बाहर चारों तरफ फैले काशी के वीर रणबांकुरों तक खबर पहुंची कि किले में
मार-काट मच गई है। फिर क्या था सभी बाज की तरह गोरी चमड़ी वालों पर टूट पड़े।
उस जंग में किसने किसको मारा ये
तो आज तक पता नहीं चल सका, लेकिन
शिवाला घाट पर बने किले के बाहर लगे शिलापट्ट पर अंग्रेजों ने ये जरूर अंकित करवा
दिया कि इसी जगह पर तीन अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेंट स्टॉकर, लेफ्टिनेंट स्कॉट और लेफ्टिनेंट
जार्ज सेम्लास समेत लगभग दो सौ सैनिक मारे गए थे।
इस घटना के तुरन्त बाद अजायब
सिंह की बहन महारानी गुलाब कुंवर ने काशी नरेश को गवर्नर वारेन हेस्टिंग को
गिरफ्तार करने की सलाह दी, लेकिन
उनके दीवान बक्शी सदानंद ने उन्हें ऐसा कराने से मना कर दिया। उधर वारेन हेस्टिंग
अपने पकडे़ जाने के डर से ‘माधव दास बाग’ के मालिक पंडित बेनी राम से चुनार जाने के लिये सहायता मांगी। उसे
पता चल गया कि काशी नरेश की एक बड़ी फौज
उसे गिरफ्तार करने के लिए किले से चल पड़ी है। कहते हैं कि अपनी गिरफ्तारी के डर
से वारेन हेस्टिंग उसी माधव दास बाग के भीतर बने एक कुंए में कूद गया और जब रात
हुई तो वो स्त्री का भेष धारण कर चुनार की ओर भाग निकला। और फिर चुनार से बड़ी फौज
लेकर काशी पर हमला बोल दिया। इस हमले में बनारस की छोटी सेना अंग्रेजों की बड़ी
फौज का सामना नहीं कर सकती थी। लिहाजा राजा चेतसिंह अपने खजाने और पूरे परिवार के
साथ ग्वालियर की ओर कूच कर गए। जहां ग्वालियर के सिंधिया ने उन्हें शरण दी। लेकिन
आजीवन फिर कभी राजा चेत सिंह काशी वापस न आ सके और ग्वालियर में ही उनका निधन हो
गया।
लेकिन इतिहास गवाह है कि के
दीवान बक्शी सदानंद क़ी ये सलाह कि वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार ना किया जाय, भारत के लिये दुर्भाग्यपूर्ण
रहा। अगर उस दिन वारेन हेस्टिंग काशी नरेश क़ी सेना के हाथों गिरफ्तार कर लिया गया
होता तो शायद अंग्रेजों के पांव भारत में ही जमने से पहले ही उखड़ जाते।
काशी नरेश चेत सिंह के बनारस छोड़ते ही महारानी गुलाब कुंवर भी अपने
भाई अजायब सिंह के साथ ग्वालियर के लिए निकल पड़ीं। हेस्टिंग्ज को इस बात की सूचना
मिली कि रामनगर के किले में राजपरिवार का कोई भी सदस्य मौजूद नहीं है। फौरन एक टुकड़ी
रानी गुलाब कुंवर को रोकने के लिए दौड़ाई गई। क्योंकि अंग्रेजों को पता था कि अगर
बनारस पर कंपनी से सीधे अधिकार कर लिया तो उनके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है।
महोबा के पास अंग्रेज टुकड़ी ने रानी गुलाब कुंवर के पालकी को रोका। सुबह से शाम
तक समझाने-बुझाने का क्रम चलता रहा और अंत में कुछ शर्तों पर रानी गुलाब कुंवर
वापस बनारस आने को राजी हुईं।
चेत सिंह के बाद रानी गुलाब कुंवर के नाती महीपत नारायण सिंह
को काशी नरेश बनाया गया जबकि बाबू अजायब सिंह उनके नायब और संरक्षक के पद पर आसीन
हुए। उन्हें कानूनी रूप से महाराजा से भी ज्यादा अधिकार
प्राप्त थे। लेकिन रानी गुलाब कुंवर के गुजरते ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने साजिश रचकर अजायबसिंह को ‘काशी राज’ के नायब पद से हटा
दिया। अब काशी की गद्दी पर महाराजा उदित नारायण सिंह बैठ चुके थे। वहीं अजायब सिंह
की जगह पर नागपुर के एक मराठा ‘शंकर
पंडित’ को
काशी का नायब और गाजीपुर जिले का ‘आमिल’ बनाया। इसी शंकर पंडित
के हाथों गाजीपुर में गड़हा, डेहमा, मोहम्मदाबाद और
जहूराबाद जैसे परगनों का स्थायी बंदोबस्त हुआ। इस
बंदोबस्त में जमकर मनमानी हुई। जहां जरूरी नहीं था वहां पैमाइश की गई और जहां
जरूरी था वहां पैमाइश की अपील को खारिज किया गया। ये वो दौर था जब अजायब सिंह का देहांत हो चुका था
और उनके तीन बेटे शिव प्रसन्न सिंह, शिव अंबर सिंह और शिव रतन सिंह बनारस (कोलअसला) और नारायणपुर (करइल) की जमीनदारी की
देखभाल कर रहे थे। मोहम्दाबाद और गड़हा परगना में करइल इलाके में कई गांवों के जमीनदारी अधिकार छीन लिए गए। न जाने कितने गांवों को नीलाम किया गया। किसानों में असंतोष बढ़ता जा रहा था।
लखनऊ का नवाब ‘वजीर अली’ इन दिनों बेदखल होकर
पेंशनयाफ्ता के रूप में बनारस के कबीरचौरा में रह रहा था। अंग्रेजों ने अब उसकी
पेंशन भी कम कर दी। नवाब वजीर अली गुस्से में था उसने अजायब सिंह के परिवार से सलाह मशविरा किया। तय हुआ कि दोनों पक्ष एक बड़ी फौज तैयार करें और अंग्रेजों पर हमला हो।अजायब सिंह के परिवार ने चितबड़ागांव (बलिया) में फौज की भरती शुरू कर दी। इस फौज में भर्ती होने वाले नौजवानों को बांका नाम दिया गया। फौज को पिंडरा (कोलअसला)
के किले मे लाया गया। लेकिन नवाब अपनी फौज इकट्ठा करने में नाकाम रहा। अजायब सिंह का परिवार नावाब की फौज का इंतजार करने लगा लेकिन नवाब वजीर अली एक दिन अचानक इस फौज को लेकर अंग्रेज रेजिडेंट से मिलने चल पड़ा और बिना किसी योजना के रेजिंडेट के मुख्यालय पर हमले का आदेश दिया। हमले
में अंग्रेज अफसरों समेत बनारस की अंग्रेज फौज का सफाया हो गया। लेकिन बिना बड़ी तैयारी के ये
हमला नवाब वजीर अली और अजायब सिंह के खानदान के लिए जानलेवा साबित हुआ। नवाब इस हमले के
बाद जयपुर में शरण लेने के लिए राजपुताना की ओर निकल गया। अंग्रेजी फौज ने नवाब का
पीछा किया और इधर रात के अंधेरे में कोलअसला के किले पर हमला कर दिया।
अजाबसिंह के छोटे बेटे शिवरतन सिंह को सोते में सिपाहियों ने चिल्लाकर हमले की खबर दी। शिवरतन सिंह उन दिनों नंगी तलवार बिस्तर के नीचे रखकर सोते थे। शिवरतन सिंह ने तलवार उठाई और तलवार को म्यान में रखा समझकर उसे बाएं हाथ से पकड़कर बाहर खींचने की कोशिश की लेकिन नींद में वो ये न देख से कि तलवार नंगी है। झटके से उनके दूसरे हाथ की सभी उंगलिया कट गई फिर भी उन्होंने शहीद होने से पहले चार अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। हमले में उनके दोनों बड़े भाई भी शहीद हो गए लेकिन काशी राज दरबार से ये बात छुपाने के लिए उनकी लाशों को चुपचाप गंगा के हवाले कर अफवाह फैला दी गई कि दोनों बड़े भाई नेपाल फरार हो गए जो कभी नहीं लौटे। पिंडरा का किला तोपों से उड़ा दिया गया...अजायब सिह के परिवार की बनारस और गाजीपुर की संपत्ति और जमींदारी जब्त कर ली गई।
अजाबसिंह के छोटे बेटे शिवरतन सिंह को सोते में सिपाहियों ने चिल्लाकर हमले की खबर दी। शिवरतन सिंह उन दिनों नंगी तलवार बिस्तर के नीचे रखकर सोते थे। शिवरतन सिंह ने तलवार उठाई और तलवार को म्यान में रखा समझकर उसे बाएं हाथ से पकड़कर बाहर खींचने की कोशिश की लेकिन नींद में वो ये न देख से कि तलवार नंगी है। झटके से उनके दूसरे हाथ की सभी उंगलिया कट गई फिर भी उन्होंने शहीद होने से पहले चार अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। हमले में उनके दोनों बड़े भाई भी शहीद हो गए लेकिन काशी राज दरबार से ये बात छुपाने के लिए उनकी लाशों को चुपचाप गंगा के हवाले कर अफवाह फैला दी गई कि दोनों बड़े भाई नेपाल फरार हो गए जो कभी नहीं लौटे। पिंडरा का किला तोपों से उड़ा दिया गया...अजायब सिह के परिवार की बनारस और गाजीपुर की संपत्ति और जमींदारी जब्त कर ली गई।
Thursday, April 23, 2015
बाबू अजायब सिंह के परिवार की शहादत-2
(ढाई सेर चीटीं के सिर
के तेल की मांग)
काशी राज की तुलना देश की बड़ी रियासतों में की जाती थी। भौगोलिक दृष्टि से काशी राज भारत का हृदय प्रदेश था। इसी के मद्देनजर उन दिनों ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में प्रस्ताव पास हुआ कि अगर काशी राज कंपनी के हुकूमत के हाथ आ जाये तो व्यवस्था और व्यापार के जरिए काफी मुनाफा होगा।
इस
योजना के तहत गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भारत पर अधिकार करने के लिये भेजा
गया। भारत आते ही हेस्टिंग्ज ने काशी नरेश चेत सिंह से एक मोटी रकम क़ी मांग रखी।
इस मांग के पीछे अंग्रेजी मंशूबे को काशी नरेश राजा चेतसिंह ने भांप लिया था और
रकम देने से साफ मना कर दिया। उन्हें लगा कि अंग्रेज उनके राज्य पर आक्रमण कर सकते
हैं इसलिए चेत सिंह ने मराठा, पेशवा और ग्वालियर जैसी
कुछ बड़ी रियासतों से संपर्क कर इस बात कि संधि कर ली कि यदि जरुरत पड़ी तो इन
फिरंगियों को भारत से खदेड़ने में वो एक दूसरे की मदद करेंगे।इधर 14 अगस्त 1781 को गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग
एक बड़ी सैनिक टुकड़ी के साथ गंगा के जलमार्ग से काशी पहुंचा। उसने कबीरचौरा के माधव दास का बाग को अपना ठिकाना बनाया।
15
अगस्त 1781 की सुबह वारेन हेस्टिंग ने अपने एक अंग्रेज अधिकारी मार्कहम को एक पत्र
दे कर राजा चेतसिंह के पास से 'ढाई किलो चींटी के सिर का तेल' या फिर उसके बदले एक मोटी रकम लाने को भेजा। उस पत्र में हेस्टिंग ने राजा
चेतसिंह पर राजसत्ता के दुरुपयोग का भी आरोप लगाया। पत्र के उत्तर में राजा साहब
ने षड़यंत्र के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। उस दिन राजा चेतसिंह और वारेन
हेस्टिंग के बीच दिन भर पत्र व्यवहार चलता रहा।दूसरे दिन 16 अगस्त
को सावन का अंतिम सोमवार था। हर साल क़ी तरह राजा चेत सिंह अपने रामनगर किले की
बजाय शंकर भगवान क़ी पूजा अर्चना करने गंगा पार छोटे किले शिवालाघाट आए थे। इसी
किले में उनकी तहसील का छोटा सा कार्यालय भी था।
कहते हैं कि जिस समय काशी नरेश
पूजापाठ से निवृत हो कर अपने दरबार में कामकाज देख रहे थे उसी समय गवर्नर वारेन
हेस्टिंग की सेना उनके दरबार में घुसने करने की कोशिश करने लगी। लेकिन काशी के
सैनिकों ने उनका रास्ता रोक लिया। तब अंग्रेज रेजीडेंट ने राजा साहब से मिलने की
इच्छा जाहिर की और कहलवाया कि वो गवर्नर साहब का एक जरुरी सन्देश ले कर आया है और
सेना तो वैसे ही उसके साथ चली आई है। लेकिन किले में केवल हम दो-तीन अधिकारी ही
आएंगे। इस पर राजा साहब के आदेश पर उन्हें अन्दर किले में भेज दिया गया।उधर किले
में बातों ही बातों में दोनों ओर से तलवारें खिंच गईं। इसी दौरान एक अंग्रेज
अधिकारी ने राजा चेत सिंह को लक्ष्य कर बन्दूक तानी, जब
तक उसकी अंगुली बन्दूक के ट्रिगर पर दबती कि उसके पहले काशी के मशहूर गुंडे बाबू
नन्हकू सिंह की तलवार के एक ही वार से उस अंग्रेज अधिकारी का सर कट कर जमीन पर आ
गिरा। चारों ओर खून ही खून बिखर गया, जिसे देख कर खून
से सने अंग्रेज अधिकारी चीखते-चिल्लाते उल्टे पांव बाहर भागे।
(क्रमश:)
बाबू अजायब सिंह के परिवार
की शहादत
किनवार वंश के इतिहास
का एक सिरा काशी राज के सिंहासन से भी जुड़ता है।अगर इस सिरे की डोर पकड़े इतिहास
में गहरे उतरें तो उत्थान, पतन और शहादत की दास्तां का एक ऐसा पन्ना हमारे हाथ लगता है जिसमें अंग्रेजी राज की गुलामी
से आजाद होने की छटपटाहट बक्सर के युद्ध के तत्काल बाद से ही दिखने लगती है।
इतिहास में थोड़ा पीछे जाते हैं। ये वो जमाना था जब कुसवार के जमींदार मनसाराम बनारस जौनपुर, आजमगढ़ और गाजीपुर में अपनी ताकत बढ़ा रहे थे। लेकिन कोलअसला (पिंडरा) के जमींदार ‘बाबू बरियार सिंह’ से उनको कड़ी टक्कर मिल रही थी। दुश्मनी खत्म करने के लिए मनसाराम ने ‘बरियार सिंह’ की बेटी ‘गुलाब कुंवर’ से अपने बेटे ‘बलवंत सिंह’ की शादी का प्रस्ताव रखा। ये विवाह मनसाराम के उत्थान में कारगर साबित हुआ और जमींदार मनसाराम बलवंत सिंह को काशी नरेश बनाने में कामयाब हो गए। आपको बताते चलें कि बरियार सिंह की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने अपना वंश आगे चलाने के लिए गाजीपुर के नारायणपुर गांव के अपने रिश्तेदार परिवार से ‘अजायब राय’ को गोद ले लिया। कालांतर में अजायब सिंह (राय) ने बहुत नाम और यश प्राप्त किया। महाराजा बलवंत सिंह ने रामनगर के जिस किले को बनवाया उस किले का समूचा निर्माण अजायब सिंह की देख-रेख में हुआ। रानी गुलाब कुंवर के लिए अजायब सिंह सगे भाई से बढ़कर थे। कहना न होगा कि महाराजा बलवंत सिंह के राज में अजायब सिंह न सिर्फ खजाने का प्रबंध देखते थे बल्कि महाराज के सामने महत्वपूर्ण मुकदमों की पेशी से पहले वो काफी मामलों को अपनी कचहरी में ही निपटा देते थे।
लेकिन इतिहास तेजी से करवट बदल रहा था। सन 1757 में
प्लासी के युद्ध में मिली अप्रत्याशित जीत के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की
महत्कांक्षा बेकाबू होती जा रही थी। उधर दिल्ली की गद्दी पर बैठा मुगल बादशाह
नाममात्र का बादशाह था। अवध के नवाब के दरबार में सुशासन और राज्य की सुरक्षा से
ज्यादा अय्याशी पर जोर था। ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल-बिहार से आगे दिल्ली
की ओर कूच करना चाहती थी। आखिरकार बक्सर में आधे-अधूरे मन से मोर्चा ठन ही गया
लेकिन बिना किसी तैयारी के भला ये जंग कैसे जीती जा सकती थी। हुआ वही जो होना था।
बक्सर की हार ने अंग्रेज कंपनी को मुल्क का मालिक बना दिया। जंग में शिकस्त के बाद
बिहार-बंगाल की सरहद पर अंग्रेजी लूट का सबसे पहला निशाना बना बनारस राज। प्रतिदिन
कोई न कोई बहाना बनाकर अंग्रेजों ने बनारस राज के खजाने को खाली करना शुरू कर
दिया। ऐसे में आजिज आकर एक दिन काशी नरेश महाराजा चेत सिंह ने अंग्रेज गवर्नर
वारेन हेस्टिंग्ज पर हमला बोल दिया। इस हमले को लेकर बनारस में एक कहावत मशहूर है :
“घोड़े पर हौदा-हाथी पर जीन,
चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग।”
(क्रमश:)
Monday, April 20, 2015
किनवार कुल के बड़े भाई के वंशज
मंगल पांडे
देश की आजादी की पहली लड़ाई के नायक मंगल पांडे
किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। लकिन कष्ट तब होता है जब उनको लेकर ब्राह्मणों और
भूमिहारों में अक्सर विवाद उठ खड़ा होता है। भूमिहार-ब्राह्मण उन्हें भूमिहार घोषित
करते हैं जबकि ब्राह्मणों की नजर में वो ब्राह्मण ही थे। जबकि सच्चाई ये है कि
दोनों के दावे अपनी जगह बिल्कुल सही हैं। ये सही है कि मंगल पांडे ने एक ब्राह्मण
परिवार में जन्म लिया था लेकिन उनकी धमनियों में भी वही रक्त प्रवाहित हो रहा था
जो दक्षिण भारत में तेरह पीढ़ियो तक भगवान परशुराम के “अग्रतश्चतुरो वेदा: पृष्ठत: सशरं धनु:। इदं ब्राम्हं इदं क्षात्रं शापादपि
शरादपि॥“ मंत्र से दीक्षित होकर राज्य और
धर्म की कीर्ति पताका को फहराने वाले किनवार ब्राह्मणों के । लेकिन दक्षिण भारत
में चेर और चोल वंश के बीच चले लंबे संघर्ष के बाद जब वहां के राजा ‘शिवरमन
पेरुमल’ ने
राजपाट 14 ब्राह्मणों की एक समिति को सौंपकर तीर्थ के लिए हिमालय प्रस्थान करने का
निर्णय लिया तब उनके राजामात्य अमोघ दीक्षित भी उनके साथ काशी के लिए चल पड़े।
केरल के इतिहास में ये साल सन् 1122 दर्ज है। किनवार वंशावली में भी उनके काशी
आगमन का वर्ष सन् 1122 लिखा है।
‘अमोघ दीक्षित’ के बेटे ‘त्रिलोचन दीक्षित’ के चार पुत्रों में मुनि दीक्षित सबसे बड़े थे। मूल्हन दीक्षित दूसरे नंबर पर और उनसे छोटे थे। लेकिन हम लोगों के पूर्वज मूल्हन दीक्षित शास्त्र के साथ ‘शस्त्र विद्या’ में पारंगत और एक कुशल योद्धा भी थे। सन् 1192 में कन्नौज के राजा गोविन्दचंद्र के उत्तराधिकारी गहडवाल नरेश ने मूल्हन दीक्षित को 700 गांवों की सामंती देकर उन्हें राजा की उपाधि दी थी। लेकिन बड़े भाई मुनि दीक्षित की रुचि कर्मकांड और धार्मिक गतिविधियों में ज्यादा थी इसलिए उन्होंने एक पुरोहित का तपस्वी जीवन चुना। उनके वंशज बलिया नगवां गांव में बसे। गौरतलब है कि ‘मंगल’ पांडे बलिया के ‘नगवा’ गांव के निवासी थे और उनके पूर्वज ‘मुनि दीक्षित’ किनवारों के पूर्वज ‘मूल्हन दीक्षित’ के बड़े भाई थे। पंडित दुबरी राय जी के लेखो में पढने को मिलता है :
"मुनि दिक्षित के
नगवा पाण्डे ,मूल्हन केर भये किनवार।" तो वहीं पंडित देवनंदन जी
ने भी अपनी पुस्तक मे कहा है : "मुनि कुल पाण्डे जगत
कहाए , मूल्हन के किनवार कहाए।"
किनवारों के पुरोहित जो
नगवाँ पाण्डे कहलाते हैं, कश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह प्रसिद्ध हैं एवं
उनकी वंशावलियों में भी लिखा हैं कि वे और किनवार दोनों भाई हैं। एक भाई का वंश
यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मर्शी
वंश विस्तार’ में भी इस बात की चर्चा करते हुए लिखा है:
"किनवारों के पुरोहित जो नगवाँ पाण्डे कहलाते
हैं, काश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह प्रसिद्ध
हैं एवं उनकी वंशावलियों में भी लिखा हैं कि वे और किनवार दोनों भाई हैं। एक भाई
का वंश यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित।"
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